मदिरापान – एक सामाजिक कलंक
मदिरापान सामाजिक कलंक है। यह व्यक्ति को तोड़ता है, परिवार को तोड़ता है, समाज को तोड़ता है और पूरे देश को तोड़ता है। इस कलंक के रहते व्यक्ति, परिवार, समाज और देशकिसी का भी अपेक्षित उत्थान नहीं हो सकता। यदि हम चाहते हैं कि व्यक्ति परिवार के उत्थान के लिए, परिवार समाज के उत्थान के लिए और समाज पूरे देश के उत्थान के लिए सक्रिय हो, तो हमें मदिरापान के कलंक को धोना होगा। एक व्यक्ति क मदिरापान से उसका पूरा परिवार प्रभावित होता है,
उस परिवार से पूरा समाज और उस समाज से पूरा देश प्रभावित होता है। मदिरापान धन की हानि से शरू कर चरित्र की हानि तक की यात्रा करता है। चरित्र की हानि से समाज में अनेक बुराइयाँ और समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जो अंततः कैंसर के समान भयावह होकर पूरे देश को नष्ट कर डालती है।
मिल्टन (अँगरेजी लेखक) ने ठीक ही कहा है कि संसार की सारी सेनाएँ मिलकर इतने मनुष्यों और इतनी दौलत को नष्ट नहीं करती जितनी शराब पीने की आदत। भगवान बुद्ध ने भी चेतावनी देते हुए कहा था कि जिस राज्य में मदिरापान को महत्त्व दिया जाता है, वह राज्य नाश को प्राप्त होता है। मदिरा चित्त को उद्वेलित करती है, मन को भ्रांत करती है, बुद्धि को दुविधाग्रस्त करती है, आत्मा को संशय में डालती है और जीवन को अंधकार के गर्त में धकेल देती है। अंधकार के उस गर्त में पड़ा हुआ जीवन इतना निस्सहाय हो जाता है कि वह अपने उद्धार की बात भी नहीं सोच सकता।
आपने शराब के नशे में बड़बड़ाते हुए किसी शराबी को अवश्य देखा होगा। उस शराबी को अपने शरीर और वाणी पर नियंत्रण नहीं होता। गिरता–पड़ता, उठता–गिरता, डगमगाता हुआ शराबी हमारे तरस का पात्र होता है। बेहोश होकर वह सड़क के किनारे पडा रहता है। लोग आते हैं. जाते हैं. पर कोई उसपर ध्यान नहीं देता। सबके भीतर यही भाव रहता है–अरे शराबी है शराबी! अच्छा हुआ कि सड़क के किनारे गंदी नाली में गिरा पड़ा है। शराबी के प्रति हमारे भीतर दुत्कार होता है। हम उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। सुंदर–से–सुंदर व्यक्ति भी शराब पीकर घिनौना हो जाता है। उसका चेहरा तक देखने का मन नहीं करता।
कुछ ऐसे भी शराबी होते हैं जो शराब के नशे में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ मारपीट करते हैं। उनका घर मुहल्ले-टोले में ‘तमाशा‘ का केंद्र हो जाता है। उस शराबी परिवार के सदस्य आर्थिक मार से संत्रस्त तो होते ही हैं, साथ–ही–साथ कुंठा के प्रहार से भी त्रस्त होते हैं। उनकी प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। उनकी आत्मा मर जाती है।
मदिरापान अशिक्षितों में ज्यादा पाया जाता है। सच्चे शिक्षित इससे कोसों दूर रहते हैं। उच्च मध्यवर्ग तथा संभ्रांत परिवारों में भी मदिरापान का प्रचलन होता है। मदिरापान किसी भी वर्ग या परिवार से जुड़ा हो, यह उस वर्ग और परिवार के चरित्र को अवश्य प्रभावित करता है। अतः, मदिरापान को किसी भी रूप में संगत नहीं ठहराया जा सकता।
शराब से मोटी आय होती है, इसी आधार पर सरकार द्वारा मदिरापान को निषिद्ध नहीं करना उसके मानसिक दिवालियेपन का ही प्रमाण है। मदिरापान से होनेवाली बीमारियों से लड़ने के लिए सरकार मदिरा से प्राप्त आय से कहीं अधिक रुपये खर्च कर देती है, पर मदिरा पर प्रतिबंध नहीं लगाती। राज्य के हर नागरिक का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह मदिरापान को निषिद्ध कराने की दिशा में प्रयत्नशील हो
आओ, प्रकृति की ओर चलें –
मानव और प्रकृति का गहरा संबंध रहा है। अनादिकाल से प्रकृति मानव की सहचरी रही है। मानव प्रकृति को कभी चकित–विस्मित नेत्रों से निहारता रहा है, तो कभी इसके सुखद–शीतल स्पर्श से आनंदित होकर इसकी महिमा के गीत गाता रहा है। प्रकृति कभी इसे प्रेयसी–सी दिखती है, तो कभी अविराम सौन्दर्य की दिव्य मूर्ति–सी। यह इसे कभी विराट और दिव्य विभूति–सी भासित होती है, तो कभी इसके हृदय के किसी सुकुमार कोने में छिपकर इसे अपनी सप्तम तान से विमोहित–सी करती प्रतीत होती है। यह कभी दुलार करनेवाली ममतामयी माँ–सी भी दिखाई देती है। प्रकृति मानव को कभी दार्शनिक बनाती रही है और कभी गायक कवि। मानव जब भी प्रकृति के साथ हुआ है, इसे शांति और आनंद का अक्षय कोष प्राप्त हुआ है। प्रकृति से दूर होकर मानव बहुत-कुछ खो देता है।
मैं तो डंके की चोट पर कहूँगा कि भौतिक सौंदर्य पर अपने प्राण न्योछावर करनेवाले लोग यदि प्रकृति के दिव्य सौंदर्य का साक्षात्कार कर लें, तो उनका जीवन सार्थक हो जाए। प्रकृति अपने क्षणभर के अनिर्वचनीय सौंदर्य से जो तृप्ति प्रदान कर देती है, वह तृप्ति करोड़ों–करोड़ सुंदर भौतिक संपदा से नहीं प्राप्त हो सकती। प्रकृति का सौंदर्य शाश्वत, अनवरत और अमर है; भौतिक सौंदर्य क्षणिक और मन को अशांत करनेवाला है। अतः, हम प्रकृति की ओर लौटकर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान कर सकते हैं।
और, हमें इस दिशा में अग्रसर भी होना चाहिए। आज हम भौतिकता के जिस प्रपंच में फंसे हुए हैं, वह अत्यंत विनाशकारी है, वह हमारे मन और चित्त को उद्वेलित करनेवाला है। अतः हमें प्रकति की शरण में जाना ही होगा। हमें कलियों के साथ मुस्कुराने, फूलों के साथ हँसने, झरनों के साथ गाने, मेघों के साथ लुकाछिपी खेलने, तारों के साथ इशारों से बातें करने, नदियों की कल–कल ध्वनि में हृदय की धड़कनें मिलाने, पंछियों के कलरव में अपने कंठ की तान भरने, चाँद के साथ संभाषण करने और वर्षा की बूंदों में अपनी उमंगें लुटाने का अभ्यास करना ही होगा।
आज की सभ्यता हमें प्रकृति से दूर ले जा रही है। यह एक प्रकार से हमारे विनाश का षड्यंत्र है। ड्राइंग रूम के भीतर प्रकृति के सुंदर दृश्यों की सजावट से हमारा कल्याण नहीं होनेवाला है। हमें तो प्रकृति के उन्मुक्त एवं भव्य वातावरण में विचरण करना होगा और अपने भीतर की सारी कुरूप प्रवृत्तियों का त्याग करना होगा। प्रकृति मित्र है। वह हमें बहुत–कुछ समझा सकती है। हमें प्रकृति की सरल और निश्छल सीख को अपने जीवन में उतारना होगा और मानवजाति को इस नंगी सभ्यता के दौर से निकालकर संस्कार के सौंदर्य की ओर ले जाना होगा। हम सभ्यता के साथ नंगे हो रहे हैं। प्रकृति हमारे इस नंगेपन को मर्यादा देगी। अब, जरूरत है कि हम प्रकृति की ओर चलें।