भूमि सुधार का क्या अर्थ है ? भारत में किये गये भूमि सुधारों की विवेचना करें।
भूमि सुधारों का अभिप्राय कृषि भूमि के स्वामित्व एवं परिचालन म किये जाने वाले सधारों से है। काश्तकारी सधारों के अतिरिक्त भ–जाता की सीमा निर्धारण, चकबन्दी, सहकारी खेती, भूमिहीनों के मध्य भूमि का वितरण, मिट्टी के गुणों को सुधारने का काम आदि कार्यक्रम भी भूमि सुधार के आवश्यक अंग हैं जिन्हें अपनाने से कृषि उत्पादकता एवं सामाजिक न्याय के हमारे दोनों लक्ष्य प्राप्त हो जाते हैं । संक्षेप में भूमि सुधारों के कार्य में संरचना एवं संगठन में परिवर्तन करना है जिसमें भूमि के उपयोग व.प्रबंध की वैज्ञानिक विधियों को बढ़ावा मिलता है और समस्त कृषिगत अर्थव्यवस्था, अधिक उत्पादक, कार्यकुशल व न्यायसंगत बन पाती है । गरीबी को कम रखने और संस्थागत साख के उपयोग को सरल बनाने के लिए भूमि संसाधन पर जो संस्थागत प्रारूप कृषि मानक क्षमता निर्धारित करने में तथा विभिन्न परतों के आदर्श प्रयोग योग्य वांछित अवसर प्रदान करता है । उसे भूमि सुधार के नाम से जाना जाता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भूमि सुधारों की आवश्यकता को महसूस किया गया था और बाद में पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधारों की निर्धनता विरोधी रणनीति के मूलभूत भाग के रूप में घोषित किया गया । भारत में कुछ किये गये भूमि सुधार निम्नलिखित हैं
(i) मध्य वर्ग की समाप्ति–प्रथम दो पंचवर्षीय योजनाओं में देश के 40 प्रतिशत क्षेत्रफल में मध्यस्थ भूमि अधिकारों को समाप्त कर लगभग दो करोड़ किसानों को सीधे सरकार के सम्पर्क में लाया गया जबकि धार्मिक एवं दातव्य संस्थाओं के पास मामूली अधिकार रह गए थे । मध्यस्थ वर्ग की सम्पत्ति व बहत सी कृषि योग्य बंजर भूमि तथा निजी वन सरकार के अधिकार में आ गये, जिससे भूमिहीन कृषिकों को भूमि हस्तांतरित करना संभव हो गया । इससे 200 लाख किसानों को लाभ पहुंचा । इसके बाद कुछ विशेष अवस्थाओं को छोड़कर जमीन को पट्टे पर देने की प्रथा बन्द कर दी गई।
(ii) काश्तकारी सुधार–इसमें चार बातों की व्यवस्था की गई है
(a) लगान नियम– लगान की उचित दर कुल उपज के एक चौथाई से पांचवें हिस्से के बीच निर्धारित की गई । लगान नियमन कानून को प्रभावपूर्ण ढंग से लाग करने के लिए काश्तकार को सुविधा प्रदान करना एवं स्वामित्व का अधिकार देना आवश्यक माना गया ।
(b) भूधारण की सुरक्षा–विभिन्न राज्यों में भूधारण की सुरक्षा सम्बन्धी कानून बनाकर काश्तकारों की बेदखली रोकी गई है, फिर भी ऐच्छिक हस्तान्तरण या परित्याग के बहाने कहीं–कहीं काश्तकारों को बेदखल किया गया है। ऐच्छिक बेदखली को रोकने के लिए द्वितीय पंचवर्षीय योजना में ऐच्छिक परित्याग की दशा में रजिस्ट्री करवाने का सुझाव दिया गया था। साथ ही यह भी कहा गया कि काश्तकार से भूमि का परित्याग करात समय भू-स्वामी केवल खुद काश्त में रखी जाने वाली भूमि की मात्रा ही अपने पास रखने का अधिकारी माना जाय ।
(c) जोतों की अधिकतम सीमा का निर्धारण–स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भूमि सुधार कार्यक्रमों के अन्तर्गत जोतों की अधिकतम सीमा का निर्धारण किया गया है। क्योंकि बड़े भूखण्डों को उचित आकार के खण्डों में बदलना जिससे उनका प्रबन्ध उचित प्रकार से हो सके, अधिक शेष भूमि को भूमिहीनों में बाँटकर सामाजिक न्याय करना तथा. अधिक व्यक्तियों को रोजगार सुविधा उपलब्ध कराना ।
-» अनुसूचित जाति क्या है ? इसकी निर्योयताओं का वर्णन करें।
उत्तर–अस्पृश्यता वर्ग–विभाजन, का ही दुष्परिणाम है, इसलिए इससे सम्बन्धित निर्योग्यताएँ और सामाजिक भेद–भाव भी जाति–प्रथा के इतिहास से जुड़े रहे हैं। मनुस्मृति में कहा गया है, कि, “चण्डालों‘ और ‘स्वपचों‘ को ‘ गाँव के बाहर रहना चाहिए, दिन में बस्ती में नहीं आना चाहिए तथा अपने बर्तनों के उपयोग को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए ।” इस प्रकार मनुस्मृति , और धर्मशास्त्रों में इन जातियों को अस्पृश्य पर रोक लगा दिया गया। 1931 में असम के जनगणना आयुक्त ने ‘बाहरी-जाति‘ के नाम से सम्बोधित किया । 1935 में साइमन कमीशन ने अस्पृश्य जातियों के लिए अनुसूचित जाति‘ का नाम दिया । डॉ० शर्मा ने अनुसूचित जाति की परिभाषा देते हुए कहा कि, “अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाये और . उसे पवित्र होने के लिए कुछ अन्य कृत्य करने पड़ें ।“
डॉ. मजूमदार ने लिखा कि, “अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जो बहुत सी सामाजिक व राजनीतिक निर्योग्यताओं से पीड़िता हैं, जिनमें से अधिकतर नियोग्यताओं को परम्पराओं द्वारा निर्धारित करके सामाजिक रूप से उच्च जातियों द्वारा लागू किया गया है ।
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अनुसूचित जाति में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताएँ सम्मिलित कर दिये गये हैं। कुछ निर्योग्यताएँ निम्नलिखित है
(i) सामाजिक सम्पर्क पर प्रतिबन्ध–अनुसूचित जातियों को न केवल समाज में निम्नतम स्थान प्राप्त होते हैं बल्कि उनपर वे सभी नियंत्रण लगा दिये गये हैं जिससे वे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से वर्णों से किसी भी प्रकार का सम्पर्क स्थापित न कर सकें ।
(ii) सार्वजनिक वस्तुओं के उपयोग पर प्रतिबंध–अनुसूचित जाति को ऐसी सभी वस्तुओं के उपयोग करने से वंचित रखा गया है जिनका उपयोग सवर्णों द्वारा किया जाता है । इन्हें सार्वजनिक कुओं, तालाबों और पार्को कर उपयोग करना उनके लिए अक्षम्य अपराध मान लिया गया ।
(iii) शिक्षा सम्बन्धी–निर्योग्यता–धार्मिक आधार पर सभी अनुसूचित जातियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया । कुछ समय पहले तक अछूतों को विद्यालयों एवं छात्रावासों में प्रवेश पाने पर प्रतिबन्ध था ।
(iv) व्यवसाय पर प्रतिबंध–अछूतों के लिए वही व्यवसाय छोड़ दिये जो अन्य जातियाँ नहीं करती थीं।