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बच्चों के प्रति अभिभावक के कर्तव्य हिंदी लेखन 

बच्चों और अभिभावकों का संबंध सनातन और अटूट है। बच्चे अभिभावकों की छत्रच्छाया में पलते हैं। अभिभावक बच्चों को कदम-कदम पर निर्देश देते हैं कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है। अभिभावकों के ऐसे निर्देशों के चलते ही बच्चों का सही पालन-पोषण होता है और उन्हें विकास की अपेक्षित दिशाएँ प्राप्त होती हैं। पर, आज की भौतिक सभ्यता के युग में यह प्रश्न उठने लगता है कि क्या अभिभावक बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों का उचित पालन करते हैं? क्या वे बच्चों को सही मार्गदर्शन देने की स्थिति में हैं? इसका उत्तर ऊपरी तौर पर तो स्वीकारात्मक दिखाई पड़ता है। पर, गौर करने पर इसका उत्तर नकारात्मक ही है। 

यह सही है कि आज के अभिभावक पहले के अभिभावकों की तुलना में अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर विशेष ध्यान देने लगे हैं। इसके दो कारण हैं- पहला तो यह कि आज के अभिभावक स्वयं शिक्षित होते हैं, वे शिक्षा का महत्त्व समझते हैं। और, दूसरा यह कि आज का युग कठिन स्पर्धा का युग में है। इस स्पर्धा के युग में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सर्वोच्च योग्यता का प्रदर्शन करना पड़ता है, जिसके लिए यह आवश्यक है कि वह कठिन परिश्रम के दौर से गुजरे। आज के अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे जीवन में सफल हों। इसलिए ये बच्चों की शिक्षा पर यथेष्ट ध्यान देते हैं। 

पर, इस संदर्भ में यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि आज के अभिभावक बच्चों की शिक्षा के एक पहलू पर ही जोर देते हैं, शिक्षा का दूसरा पहलू उनसे सर्वथा अछूता रह जाता है। और, वह है, बच्चों को अच्छा संस्कार देना। पहले के अभिभावक बच्चों को अच्छे संस्कार देने के हिमायती थे, पर आज के अभिभावक अच्छे संस्कारों पर नहीं, केवल पुस्तकीय ज्ञान पर ध्यान देते हैं ताकि उनके बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, व्यवस्थापक आदि हो सकें और अधिक-से-अधिक पैसे कमा सकें। यह दृष्टिकोण एकांगी है। इस एकांगी दृष्टिकोण से बच्चों का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है, जो ‘शिक्षा’ का प्रधान उद्देश्य है। ‘शिक्षा’ का अर्थ है कि बच्चों को सही परिवेश में रखकर पुस्तकीय ज्ञान के साथ उच्च संस्कारों का भी ज्ञान देना। उच्च संस्कारों के अभाव में ‘शिक्षा’ का अर्थ ही गलत हो जाता है। ‘शिक्षा’ का अर्थ होता है सीखना, यानी जीवन को पूर्णता में सीखना और जानना।

संयुक्त परिवार के जमाने में बच्चे अपने दादा-दादी, चाचा-चाची, भैया-भाभी से अनेक मानवीय संस्कार ग्रहण करते थे। पर, आज तो एकल परिवार का युग है। इस युग में माता-पिता का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों को सही ढंग से शिक्षित करें। आगे कुछ बिन्दु दिए जा रहे हैं जिनपर अभिभावकों का ध्यान अवश्य जाना चाहिए।

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अभिभावकों का यह कर्तव्य है कि अपने बच्चों को वे बचपन से यह एहसास करा दें कि जीवन का एक उद्देश्य होता है। निरुद्देश्य जीवन का कोई अर्थ नहीं होता। स्कूल-कॉलेज की शिक्षा तो उस उद्देश्य की प्राप्ति का साधन है। इस स्पर्धा के युग में स्पर्धा (competition) के प्रति बच्चों में स्वाभाविक जागरूकता पैदा करनी चाहिए, न कि बच्चों को स्पर्धा की आग में झोंक देना चाहिए। बच्चों की क्षमता के अनुसार ही उनसे अपेक्षा रखनी चाहिए। उनपर बहुत अच्छा करने के लिए अतिरिक्त बोझ नहीं डालना चाहिए। अभिभावकों और माता-पिता को चाहिए कि वे आदर्श पुरुषों की तरह बच्चों के सामने आएँ, यानी उनकी क्रियाओं और कथनों में आदर्श का समन्वय हो। अच्छे संस्कार उत्पन्न होने के बाद वे टूटते नहीं। माता-पिता और अभिभावकों का बच्चों के प्रति यही सबसे बड़ा और उत्तम कर्तव्य है कि वे बच्चों में संस्कार डालें। अच्छे संस्कार से शरीर, मन और आत्मा का समन्वय होता है। इस समन्वय से ही सर्वांगीण विकास संभव होता है। 

 

 मेरे प्रिय नेता / प्रिय प्रधानमंत्री


लाल बहादुर शास्त्री का जन्म वाराणसी के निकट मुगलसराय नामक गांव में 2 अक्टूबर 1904 को हआ था। इनके पिता का नाम श्री शारदा प्रसाद और माता का नाम श्रीमती रामदलारी देवी था। बाल्यावस्था में ही लाल बहादुर पितृविहीन हो गए। 

लाल बहादर की प्रारंभिक शिक्षा घोर अर्थाभाव में हुई। यह अपने गावस वाराणसी पैदल पढने जाते थे। इनके पास इतने पैसे नहीं होते थे कि यह नाव में बैठकर गंगा पार कर सकें। अतः, इन्हें प्रायः तैरकर ही गंगा को पार करना पड़ता था। 1921 में महात्मा गाँधी असहयोग आंदोलन के क्रम में वाराणसी आए। उन्होंने अपने भाषणों में उन नवयुवकों का आह्वान किया जो भारतमाता की दासता की बेड़ियों को काटने के लिए अपना सबकुछ बलिदान करने का तैयार हों। काशी विद्यापीठ से इन्होंने शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की और तभी से इनके नाम के साथ ‘शास्त्री’ शब्द जुड़ गया। अब यह लाल बहादुर से लाल बहादुर शास्त्री हो गए। 

लाल बहादुर शास्त्री में गरीबों के प्रति असीम करुणा थी। इनके हृदय म भारतमाता के लिए अपूर्व श्रद्धाभाव था। अध्ययन समाप्त करने के बाद यह ‘लोक सेवक संघ’ के आजीवन सदस्य बन गए। इनका कार्यक्षेत्र इलाहाबाद था। यह 1930 से 1936 तक इलाहाबाद जिला काँग्रेस कमिटी के अध्यक्ष रहे। 1936 से 1938 तक यह उत्तर प्रदेश काँग्रेस के महासचिव भी रहे। 1937 में यह उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य बने। शास्त्रीजी कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार और संवेदनशील राजनेता थे। 1952 में अरियालूर रेल-दुर्घटना का दायित्व लेते हुए इन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। 1956-57 में शास्त्रीजी इलाहाबाद शहरी क्षेत्र से लोक सभा के लिए चुने गए। इन्होंने 9 जून 1964 को प्रधानमंत्री का पदभार सँभाला। इन्होंने भारत-पाक युद्ध के समय अपनी अपूर्व योग्यता का परिचय दिया। यह जन-जन के हृदय में प्रतिष्ठित हो गए। इस इतिहासपुरुष की जीवनलीला 11 जनवरी 1966 को सोवियत रूस के ताशकंद में समाप्त हो गई। भारतीय जनता के लिए राजनीतिक स्थिरता की खोज करनेवाला यह जननायक मरकर भी अमर है।

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