Sociology Question

आदिवासी शव्द को परिभाषित कीजिये


 आदिवासीऐसी जनजातियाँ जिन्हें वनवासीसमझा गया उनके वनों की परिस्थितियों में आवास ने उनकी आर्थिक, सामाजिक राजनीतिक विशेषताओं को आकार दियाउन्हें आदिवासी कहकर पुकारा गया। 

जनजातीय यानी आदिवासी लोगों की आबादी पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर किसी भी क्षेत्र या राज्य में अधिक नहीं है। कुछ क्षेत्रों में इनकी आबादी घनी है, परन्तु ऐसे कोई इलाके या राज्य नहीं जहाँ केवल जनजातीय लोग ही रहते हैं। जिन इलाकों में इनकी आबादी घनी है, वहाँ आमतौर पर इन जनजातीय लोगों की आर्थिक और सामाजिक हाल बदतर है। इस गरीबी की हालत में रहने का. मुख्य कारण स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व औपनिवेशिक काल है । उपनिवेश काल में ब्रिटिश सरकार ने इन जनजातियों के साथ काफी अन्याय व शोषण किए जो इस प्रकार हैं 

(i) ब्रिटिश सरकार ने इन जनजातीय लोगों के इलाका यानी जंगलों से संसाधनों को निकालना शुरू कर दिया था जिससे इनके निर्वाह – स्थान को काफी नुकसान हुआ।

(ii) औपनिवेशिक सरकार ने अधिकांश वन-प्रदेशों को आरक्षित कर लिया व अपने उपयोग के लिए रखे रहा। इन सब प्रयासों से आदिवासियों को इन आरक्षित वनों पर खेती करने व उपज इकट्ठी करने, वनों के संसाधनों का उपयोग करने से वंचित कर दिया गया। इन जनजातीय लोगों को वनों में पहुँच पर, पाबन्दी लगा दी गई। 

(iii) ब्रिटिश सरकार ने वनों की कीमती इमारती लकड़ियों की अधिकता 

के लिए लगभग सभी वनों को आरक्षित कर दिया।

(iv) आदिवासी लोग जो वनों के उत्पादों को बेचकर ही अपनी आजीविका कमाते थे उनसे उनकी आजीविका के मुख्य आधार छीन लिए गए व उनके जीवन को पहले की अपेक्षा अत्यधिक असुरक्षित बना दिया गया।

(v) इन आदिवासियों के आरक्षित वनों में प्रवेश करने पर उन्हें ‘घुसपैठिए’, ‘चोर-उच्चके’ कहकर. दंडित किया जाने लगा जिससे आदिवासी लोग वनों को छोड़कर अन्य स्थानों पर चले गए। 

औपनिवेशिक काल में आदिवासी जातियों पर कई अन्याय किए गए। इसका कारण था कि सत्ता की बागडोर भारत के हाथ में न होकर ब्रिटिश सरकार के हाथ में थी। परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी भारत सरकार ने आदिवासियों की दुर्दशा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। 1947 ई. में स्वतंत्रता के पश्चात् जहाँ यह सोचा गया था कि आदिवासियों की जीवन व्यवस्था में सुधार हो जाएगा, वहीं इसके बिल्कुल विपरीत हुआ । भारत सरकार द्वारा आदिवासियों पर कई अन्याय किए गए जो इस प्रकार है – 

(i) आदिवासी वनों पर सरकार का अधिकार जारी रहा। बचे हुए वनों पर भी सरकार द्वारा अधिकार कर लिया गया। इसके अतिरिक्त वनों की कटाई में और तेजी ला दी गई।

(ii) भारत सरकार द्वारा अपनाई गई पूँजी-प्रधान औद्योगीकरण की नीति को कार्यान्वित करने के लिए खनिज संसाधनों और विद्युत उत्पादन की आवश्यकता थी व इन खनिज संसाधनों की अधिकता वनों में सर्वाधिक थी जिसके लिए वनों को और अधिक आरक्षित कर दिया गया।

(iii) नई खनन यानी खुदाई कार्यों व बाँध परियोजनाओं के लिए आदिवासियों के लिए शेष बची भूमियों को भी अधिकृत कर लिया .. गया। इस प्रक्रिया में आदिवासियों को पर्याप्त मुआवजे और समुचित पुनर्वास की व्यवस्था की गई थी, परन्तु उन्हें इन सब व्यवस्थाओं से विस्थापित कर दिया गया।

(iv) आदिवासियों को अधीन करके उनके संसाधनों पर अधिकार कर लिया गया। आदिवासी लोग जो इन संसाधनों पर निर्भर थे, अब भुखमरी का सामना कर रहे हैं। 

(v) 1990 के दशक से भारत सरकार द्वारा आर्थिक उदारीकरण की नीतियाँ अपनाई गई। जिसके अन्तर्गत अब निगमित फार्मों के लिए आदिवासियों को विस्थापित करके बड़े-बड़े इलाकों पर अधिकार करना काफी आसान हो गया है। संक्षेप में, आज आदिवासी होने का मतलब स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात ‘विकास परियोजनाओं’ के नाम पर आदिवासियों से वनों का छिन जाना, भूमि का अपहरण, बार-बार विस्थापन एवं परेशानियों का सामना करना सम्मिलित हैं।


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जनजाति क्या है इसके प्रमुक समस्या की व्याख्या करे


 जनजातियों का ‘आदिम’ अर्थात् विशुद्ध समाज, जो असभ्यता से अछूते रहे हों, मानने का कोई सुसंगत आधार नहीं है। इसके विपरीत, जनजातियों को ऐसी, द्वितीयक’ प्रघटना माना जाए जो पहले से विद्यमान राज्यों और जनजातियों, जैसे—राज्येतर समूहों के बीच शोषणात्मक और उपनिवेशवादी संपर्क के परिणामस्वरूप आयीं । जनजातीय समुदाय संग्राहक समाजों के समान हैं जो सामाजिक परिवर्तनों से भी अछूते रहते हैं। उदाहरणतया आदिवासी लोग आज सभ्यता से अछूते रहकर अपना जीवन अलग व्यतीत कर रहे हैं। उनकी यह स्थिति पहले न थी। मध्यवर्ती तथा पश्चिमी भारत के तथाकथित राजपूत राज्यों में से अनेक रजवाड़े स्वयं ही आदिवासी समुदायों के माध्यम से उत्पन्न हुए । आदिवासी लोग अक्सर अपनी आक्रामक क्षमता व स्थानीय सैन्य दलों ने अपनी सेवाओं के माध्यम से मैदानी इलाकों के लोग पर अपने प्रभुत्व का प्रयोग करते हैं। वे कुछ विशेष प्रकार की वस्तुएँ, जैसे-नमक, हाथी, वन्य उत्पादों का व्यापार करते हैं। 

इस प्रकार जनजातियाँ दूसरे समुदायों पर निर्भर न रहकर अपना जीवन व्यतीत करती हैं। वे अपने भरण-पोषण के लिए भोजन का प्रबन्ध कुछ व्यापार करके या खेती करके कर लेते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि जनजातियाँ आदिम समुदाय है जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग जीवन व्यतीत करते हैं। 

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